IAS, IPS, IFS के विरुद्ध जांच रोकने पर विपक्ष का आरोप-नौकरशाह, सरकार के बीच आर्थिक समझौता
भोपाल : राज्य शासन ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 17 ए के अंतर्गत प्रकरणों के मानकीकरण और संचालन के संबंध में निर्देश जारी किए हैं। इसके बाद अब आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफ़सरों के विरुद्ध जांच एजेंसी सीएम की अनुमति बिना जांच नहीं कर सकेंगी। इस आदेश को नेता प्रतिपक्ष ने सरकार को घेरते हुए कहा है कि इससे ऐसा लगता है कि सरकार और आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफ़सरों, नौकरशाहों के साथ आर्थिक समझौता हुआ है जिसके बाद राज्य सरकार आत्म समर्पित हो गई है।
जीएडी द्वारा तीन दिन पहले जारी आदेश में कहा गया है कि भारत सरकार द्वारा अवर सचिव से अनिम्न स्तर के अधिकारियों को लेकर यह निर्देश जारी किए गए हैं। 3 सितंबर 21 को जारी निर्देशों के परिप्रेक्ष्य में राज्य सरकार द्वारा भी सभी विभागों, संभागीय आयुक्त एवं विभागाध्यक्ष, जिला अध्यक्षों को इसका पालन करने के निर्देश दिए जा रहे हैं। इसमें कहा गया है कि भारत सरकार द्वारा जारी एसओपी के अनुसार धारा 17 ए के अंतर्गत निर्णय लेने संबंधी सक्षम प्राधिकारी अखिल भारतीय सेवा एवं वर्ग 1 के अधिकारियों के मामले में समन्वय कर्ता मुख्यमंत्री होंगे। वर्ग 2 वर्ग 3 और 4 के अधिकारियों और कर्मचारियों के मामले में संबंधित प्रशासकीय विभाग निर्णय लेगा।
नेता प्रतिपक्ष का सवाल, क्या भ्रष्ट नौकरशाहों और सरकार के बीच समझौता है यह आदेश
मप्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंदसिंह ने भ्रष्टाचार के मामलों में कार्यवाही से पहले भ्रष्ट आईएएस, आईपीएस और आईएफएस नौकरशाहों के खिलाफ जांच एजेंसियों को मुख्यमंत्री से अनुमति लिए जाने के निर्णय को दुःखद व भ्रष्टाचारियों के समक्ष शिवराज सरकार का “आत्मसमर्पण” निरूपित किया है। डॉ. सिंह ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि इस निर्णय को अमल में लाने के पहले सरकार और भ्रष्ट नौकरशाहों के बीच कोई “आर्थिक समझौता” हुआ है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भ्रष्ट नौकरशाहों पर लगाम लगाने के लिए पहले उन्हें नौकरी करने लायक नहीं रहने देने, जेल की हवा खिलाने व जमीन में गाड़ देने की गीदड़ भभकी दी और अब उन्हीं के सामने यह “आत्मसमर्पण” क्यों ? इसे क्या माना जाए ?
नेता प्रतिपक्ष डॉ. सिंह ने कहा कि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए ही लोकायुक्त संगठन, ईओडब्ल्यू जैसी भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाएं अस्तित्व में लाई गईं थी। यदि यह संस्थाएं ही भ्रष्टाचार से सम्बद्ध किसी भी मामले में आरोपियों के खिलाफ बिना मुख्यमंत्री की मंजूरी के अब जांच, किसी भी तरह की पूछताछ अथवा एफआईआर नहीं कर सकती तो इनकी प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है ? लिहाजा, सरकार को इनके दफ्तरों पर ताला ही लगा देना चाहिए। डॉ. सिंह ने यह भी कहा कि यह निर्णय और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 17-A इस विषयक प्रावधान लाने की जरूरत क्यों पड़ी, मुख्यमंत्री को अपनी मंशा स्पष्ट करना चाहिए ? क्या मुख्यमंत्री ने यह निर्णय देश के उन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अनुमति लेकर लिया है जिसमें उन्होंने “न खाऊंगा, न खाने दूंगा” की बात लाल किले की प्राचीर से कही थी।
डॉ.सिंह ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से यह भी जानना चाहा है कि उनके 15 वर्षीय कार्यकाल में भ्रष्ट नौकरशाहों, कर्मचारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर अब तक कितने प्रकरण व क्यों लंबित हैं, निर्धारित सीमा अवधि में उन्हें निराकृत क्यों नहीं किया गया, क्या मज़बूरी थी ? यही नहीं भ्रष्टाचार से संबंधित कर्मचारियों-अधिकारियों व भाजपा से जुड़े नेताओं के खिलाफ विभिन्न न्यायालयों में अपेक्षित अभियोजन की स्वीकृति कितने सालों से व क्यों लंबित है ? इसके पीछे मुख्यमंत्री की कौन सी मज़बूरी छुपी हुई है, उन्हें वे क्यों बचाना चाह रहे हैं ? सार्वजनिक होना चाहिए।