देश के शीर्ष न्यायालय सुप्रीम कोर्ट ने नाबालिगों से जुड़े संपत्ति के मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। देश के शीर्ष न्यायालय ने नाबालिगों से जुड़े संपत्ति लेनदेन से जुड़े एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि अगर किसी नाबालिग की संपत्ति उसके माता-पिता या अभिभावक कोर्ट की अनुमति के बिना बेच देते हैं, तो बालिग होने के बाद वह उस सौदे को सिर्फ आचरण से भी अस्वीकार कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब कोई नाबालिग वयस्क हो जाता है, तो वह अपने अभिभावक के संपत्ति के हस्तांतरण को अपने स्पष्ट और निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार कर सकता है। इसके लिए उसे कोर्ट में मुकदमा दर्ज करने की जरूरत नहीं है।
यह फैसला जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की बेंच ने केएस शिवप्पा बनाम श्रीमती के नीलाम्मा मामले में सुनाया। सात अक्टूबर को दिए गए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब कोई नाबालिग वयस्क हो जाता है, तो वह अपने अभिभावक के संपत्ति के हस्तांतरण को अपने स्पष्ट और निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार कर सकता है। जैसे कि उस संपत्ति को स्वयं बेच देना या किसी और को स्थानांतरित कर देना।
जस्टिस मिथल ने निर्णय लिखते हुए कहा कि यह सुरक्षित रूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नाबालिग के अभिभावक की ओर से निष्पादित अमान्य करने योग्य (वॉयडेबल) लेनदेन को वह नाबालिग वयस्क होने पर एक निश्चित समय सीमा के भीतर ऐसे लेनदेन को निरस्त करने के लिए मुकदमा दायर करके या अपने निर्विवाद प्रवर्तन से अस्वीकार या नजरअंदाज कर सकता है। फैसले में कहा गया है कि विवादास्पद प्रश्न यह था कि क्या नाबालिगों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने स्वाभाविक अभिभावक द्वारा निष्पादित पूर्व विक्रय विलेख को रद्द कराने के लिए वयस्क होने पर निर्धारित समयावधि के भीतर वाद दायर करें। इसमें कहा गया कि प्रश्न यह है कि क्या वयस्क होने के तीन वर्ष के भीतर उनके आचरण के माध्यम से इस तरह के विक्रय विलेख को अस्वीकृत किया जा सकता है।
पीठ ने हिन्दू अप्राप्तवयता संरक्षकता अधिनियम का दिया हवाला
सवालों के जवाब देने के लिए, पीठ ने हिन्दू अप्राप्तवयता संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा सात और आठ का हवाला दिया। बेंच न कहा कि प्रावधानों को सरलता से पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नाबालिग के स्वाभाविक अभिभावक को अदालत की पूर्व अनुमति के बिना नाबालिग की अचल संपत्ति के किसी भी हिस्से को बंधक रखने, बेचने, उपहार देने या अन्य किसी प्रकार से हस्तांतरित करने या यहां तक कि ऐसी संपत्ति के किसी भी हिस्से को पांच साल से अधिक अवधि के लिए या नाबालिग के वयस्क होने की तारीख से एक साल से अधिक अवधि के लिए पट्टे पर देने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है।
जानें क्या है पूरा मामला
दरअसल मामला कर्नाटक के दावणगेरे के शामनूर गांव में दो समीपवर्ती भूखंडों संख्या 56 और 57 से जुड़ा था। मूल रूप से 1971 में रुद्रप्पा नाम के व्यक्ति ने अपने तीन नाबालिग बेटों, महारुद्रप्पा, बसवराज और मुंगेशप्पा के नाम पर खरीदा था। जिला अदालत से पूर्व अनुमति लिए बिना, रुद्रप्पा ने ये प्लॉट किसी तीसरे पक्ष को बेच दिएय़ प्लॉट संख्या 56 एस आई बिदारी को बेच दिया गया और बाद में 1983 में बी टी जयदेवम्मा ने इसे खरीद लिया। नाबालिगों के वयस्क होने के बाद, उन्होंने और उनकी मां ने 1989 में वही प्लॉट केएस शिवप्पा को बेच दिया. जयदेवम्मा की ओर से स्वामित्व का दावा करते हुए दायर किया गया दीवानी मुकदमा अंततः कर्नाटक हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। जिसने नाबालिगों को अपने स्वयं के बिक्री विलेख के माध्यम से अपने पिता की बिक्री को अस्वीकार करने के अधिकार को बरकरार रखा।
निचली अदालत ने खारिज कर दी थी याचिका
निचली अदालत ने उसके मुकदमे को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि रुद्रप्पा की ओर से की गई बिक्री अमान्य करने के योग्य है। नाबालिगों की ओर से बाद में की गई बिक्री से वैध रूप से अस्वीकृत हो गई। हालांकि, साल 2005 में प्रथम अपीलीय न्यायालय और 2013 में हाईकोर्ट ने इस निर्णय को पलट दिया और कहा कि चूंकि नाबालिगों ने अपने पिता के विक्रय विलेख को रद्द करने के लिए कोई औपचारिक मुकदमा दायर नहीं किया था, इसलिए लेन-देन पक्का माना जाएगा।
इसके बाद शिवप्पा ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। प्रावधानों का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि कोई भी स्वाभाविक अभिभावक न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना नाबालिग की अचल संपत्ति को हस्तांतरित नहीं कर सकता और ऐसा कोई भी लेनदेन नाबालिग के कहने पर अमान्य करने योग्य हो जाएगा। हालांकि, पीठ ने स्पष्ट किया कि कानून में यह निर्दिष्ट नहीं किया गया है कि ऐसे अमान्य किए जाने योग्य लेनदेन को किस प्रकार अस्वीकृत किया जाना चाहिए।







